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मेरा गाँव मेरा प्रधान

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एम.एस चौहान

देश पंचायती राज के मूल मंत्र की दुहाई दे रहा है। इसमें कोई बुराई नहीं है। पंचायतीराज ही लोकतंत्र का आधार है। लोकतंत्र तभी स्वस्थ होगा जब पंचायती राज फल-फूल रहा होगा। क्या सच में हमारे देश का पंचायती राज फल-फूल रहा है। पंचायतों में भी आरक्षण की व्यवस्था लागू है। जातियों के आधार पर आरक्षण के साथ-साथ महिलाओं के लिए आरक्षण लागू है। अच्छी बात है। लेकिन क्या आरक्षण का लाभ उठा कर प्रधान बनने वाले हमारे जन प्रतिनिधि अपने काम की जानकारी रखते हैं। क्या वे अपना काम कर पाते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे दूसरों के हाथों की कठपुतली बन कर रह जाते हैं। तमाम ऐसे उदाहरण समय-समय पर प्रकाश में रहे हैं। जिन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि आरक्षण का लाभ उठा कर प्रधान बनी महिलाएं और यहाँ तक कि पुरूष भी नाम मात्र के प्रधान होते हैं। काम करने वाला कोई और ही होता है। ऐसी स्थिति में आरक्षण का क्या लाभ। ऐसे हालातों में महिलाओं के प्रधान बन जाने से भी क्या लाभ। कहने का अर्थ यह है कि सरकार को प्रधानों के लिए प्रशिक्षण का प्रबन्ध करना चाहिए। उनके लिए साल में तीन बार वर्कशॉप का बन्दोबस्त होना चाहिए। वर्कशॉप के माध्यम से इन्हेें प्रशिक्षण देकर क्षमतावान बनाया जा सकता है। इन्हें अफसरों से कैसे बात करनी है और क्या बात करनी है, यह तो पता होना चाहिए। देखा यह गया है कि महिलाएं प्रधान तो बन जाती हैं लेकिन उनके बदले काम करने वाले या तो उनके पति होते हैं, या बेटे और भाई। कभी-कभी तो यह भी देखा गया कि ससुर जी प्रधानी का काम देख रहे हैं और प्रधान बहू को गाँव की समस्याओं के बारे में कुछ पता नहीं होता। उन्हें इस बात से भी कोई मतलब नहीं होता कि कितने घरों में बिजली नहीं है और उसका कारण क्या है। इसी तरह उन्हें पेयजल समस्या के समाधान को लेकर कोई सूझबूझ नहीं होती। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि सरकार गाँव के लोगों के लिए क्या-क्या योजनाएं लेकर आ रही हैै। नतीजा यह होता है कि गाँव के पिछड़े लोगों को भुगतना पड़ता है। उनकी आवाज उठाने वाला कोई नहीं होता है। सरकारी अफसर ईमानदार ना हों तो ऐसे गाँवों की समस्या विकराल हो जाती है। इसलिए, दावे से कहा जा सकता है कि अगर ऐसे प्रधान पुरूषों और महिलाओं के प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। जब तक ऐसे प्रधानों को अनुभव होगा तब तक तो समय बहुत आगे निकल चुका होगा। अच्छे और ईमानदार स्वैच्छिक संगठनों को इस काम के लिए आगे आना चाहिए। देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों को इस काम में मदद करनी चाहिए। जब तक हमारा पंचायती राज स्वस्थ नहीं होगा तब तक स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना बेकार है। अगर आप मामलें की गहराई में जाएंगे तो आपको पता लगेगा कि अधिकतर मामलों में पुरुष वर्ग महिलाओं को प्रधान बन जाने के बावजूद उन्हें आगे नहीं आने देना चाहता है। उन्हें वे दबा कर रखना चाहते हैं ताकि वे घर की चाहरदीवारी में हमेशा की तरह कैद रहें।

 

 

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