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देहरादून के इतिहास का एक पन्ना

-डाकू कलवा का दून में आतंक

-अंग्रेज आतंकित रहते थे कलवा से

स्रोत: देहरादून का इतिहास

लेखक: जी आर सी विलियम्स

अनुवाद: प्रकाश थपलियाल

पोर्टल पर लेखक: वीरेन्द्र देव गौड़ एवं एम0एस0 चौहान

पुस्तक प्राप्त हुईः दून लाइब्रेरी देहरादून, परेड मैदान

अंग्रेज प्रबन्धक शोरी ने प्रशासक के रूप में दून में 22 फरवरी 1823 से लेकर फरवरी 1829 तक दून में शासन किया। उसके शासन के दौरान उसे एक अजीबोगरीब डकैत से मुकाबला करना पड़ा। डकैत की कलवा के नाम दून और आसपास के क्षेत्रों में दहशत थी। कलवा छापामार तरीके से आक्रमण कर लूटपाट के बाद छूमंतर हो जाया करता था। वह पेशे से डकैत था और उसे अंग्रेजों से नफरत थी। शोरी ने दून के प्रबन्धन को ढर्रे पर लाने के लिए बहुत मेहनत की थी। लेकिन, कलवा शोरी के लिए चुनौती बन गया था। शुरू में तो शोरी को लगा कि कलवा एक अफवाह मात्र है। क्योंकि , वह लूटपाट इस अंदाज में करता था कि पीछे कोई सबूत नहीं छोड़ता था। तब देहरादून सहारनपुर जिले में था। शोरी को लगा कि कलवा को समाप्त किए बिना उसके सुधार कार्य बेअसर रहेंगे। लिहाजा, शोरी ने कलवा को एक हकीकत मानकर उसके आतंक से जनपद सहारनपुर को मुक्त करने का फैसला किया। कल्लू या कलवा अनुशासित डकैतों के एक बड़े गैंग का मुखिया था। जिसका आतंक गंगा के दोनों ओर था। 1823 की वसंत में कार्यवाहक मजिस्ट्रेट मि0 ग्लिन को कानून व्यवस्था देख रही अपनी पुलिस की सहायता के लिए सिरमौर बटालियन का एक दस्ता मंगाना पड़ा। 31 मार्च 1823 को मि0 शोरी को गुप्त सूचना मिली कि देहरा और हरद्वार के बीच के जंगल में डकैतों के कुछ दल सक्रिय हैं। इसी तरह की सूचना कैप्टेन यंग के पास भी थी। डाकुओं को भनक लग गयी कि प्रशासन उनके बारे में जान चुका है। आनन फानन में डकैत सहारनपुर भाग गए। फिर मई 1824 में मि0 शोरी को गुप्त सूचना मिली कि देहरा के निकट नवादा में कुछ डाकू देखे गए हैं। डाकुओं का एक गिरोह कालूवाला दर्रे से दून में दाखिल हुआ और गांव को लूट कर गायब हो गया। डाकुओं का पीछा किया गया किन्तु वे पकड़ में नहीं आए। एक बार फिर शोरी को लगा कहीं कलवा लोगों का भ्रम तो नहीं। किन्तु शोरी ने छानबीन जारी रखी। वह इस नतीजे पर पहुँचा कि कलवा और उसके साथ कोई और नहीं बल्कि शिवालिक की तलहटी के गाँवों के लोग हैं। वर्ष 1824 के जाड़ों में ही कलवा ने अपने सहायक कुँवर और भूरा के साथ अपनी जाति के कुछ लोगांे और रांगड़ों को मिलाकर एक बड़ा गिरोह तैयार किया। यह गिरोह तलवारों, भालों और बन्दूकों से लैस था। कलवा का मुख्यालय रूड़की से कुछ मील पश्चिम में कुंजा के किले में था। यह किला लंढ़ौरा के एक परिवार के सम्बन्धी बिजे सिंह का था। बिजे सिंह 40 गाँवों का तालुकदार था। इसका प्रभाव मेरठ और मुरादाबाद तक था। जब कलवा के एक गिरोह ने भगवानपुर में लूटमार की तब शोरी को यकीन हुआ कि कलवा भ्रम नहीं एक हकीकत था। कुछ समय बाद कलवा ने अपना नाम बदलकर कल्याण सिंह रख लिया। उसके गिरोह के सदस्यों की संख्या 1,000 हो गयी थी। जिसके सामने पुलिस बल कहीं नहीं ठहरता था। साथ में उसने यह भी घोषणा कर दी कि वह विदेशी दासता को उखाड़ फेंकेगा। यह घोषणा सुनकर शोरी का सर चकरा गया। वह सामने खड़ी आफत से चिंता में पड़ गया। अब प्रशासन ने गोरखा सेना नायक की ताकत का इस्तेमाल कर कलवा के आतंक को समाप्त करने का बीड़ा उठाया। कलवा अब तक राजा कल्याण सिंह बन चुका था। लिहाजा, गोरखा सेना नायक ने स्थानीय अधिकारियों और 200 सामान्य सैनिकों को लेकर कुंजा नामक स्थान को घेर लिया। कुंजा में एक किला था जिसमें कल्याण सिंह और उसके डकैत साथी मोर्चा संभाले हुए थे। वे भी आर पार की लड़ाई का मन बनाए हुए थे। उन्होंने गोरखों को पहाड़ी बन्दर कहकर उनका मजाक उडाया। गोरखे क्रोधित हो गए। गोरखों की ओर गोलियों की बौछार कर दी गयी। संयोग की बात है कि पहली बौछार में ही डाकुओं का सरदार कलवा ढेर हो गया और उसकी सेना में भगदड़ मच गयी। गोरखों ने किले को भी मटियामेट कर दिया। मि0 शोरी ने भी इस मुकाबले में पराक्रम दिखाया था। इस तरह कलवा के आतंक का खात्मा हुआ।

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