
देहरादून (संवाददाता)। ट्रेन को पटरी पर दौडऩा है और जंगल से गुजर रहे ट्रैक से हाथियों को भी गुजरना है। यह दौड़ सुरक्षित बनी रहे, इसके लिए ही सामंजस्य बैठाना है, मगर उत्तराखंड में इसी मोर्चे पर सिस्टम अब तक सफल होता नहीं दिख रहा। नतीजा रेलवे टै्रक पार करते वक्त ट्रेन से कटकर हाथियों की मौत के रूप में सामने आ रहा है। ऐसे में सवाल उठ रहा कि राष्ट्रीय विरासत पशु गजराज कब तक ऐसे ही काल-कवलित होते रहेंगे। इस लिहाज से देखें तो हर बार हादसा होने पर कुछ दिनों की सक्रियता के बाद वन महकमे की हाथियों की सुरक्षा को लेकर फिर से गहरी नींद में सोने की परिपाटी भी भारी पड़ रही है। यही कारण है कि रेलवे ट्रैक पर नियमित गश्त, सेंसर, रेलगाड़ी की गति सीमा जैसे तमाम बिंदुओं के मद्देनजर आज तक कोई ठोस पहल धरातल पर नहीं उतर पाई है। गुजरे साढ़े तीन दशक के वक्फे को ही लें तो इस अवधि में राजाजी टाइगर रिजर्व व उससे लगे रेलवे ट्रैक पर 29 हाथियों की ट्रेन से कटकर मौत हो चुकी है। इसमें उत्तराखंड बनने के बाद से अब तक के 13 हाथी भी शामिल हैं। एलीफेंट टास्क फोर्स (ईटीएफ) के आंकड़ों पर ही नजर दौड़ाएं तो उत्तराखंड में हाथियों की सबसे अधिक मौत हरिद्वार-देहरादून रेलवे ट्रैक पर हो रही हैं। इनमें भी राजाजी टाइगर रिजर्व के अंतर्गत मोतीचूर व कांसरो ऐसे स्थल हैं, जहां सबसे ज्यादा हादसे हुए हैं। रेलवे ट्रैक पर हादसे में गजराज की मौत के बाद हर बार ही वन्यजीव महकमा हाथियों की सुरक्षा के इंतजाम के दावे तो करता है, मगर कुछ समय बाद फिर हादसा होने से इनकी कलई खुलकर सामने आ जाती है। हाथी सुरक्षा के मद्देनजर पूर्व में रेलवे ट्रैक के इर्दगिर्द साफ-सफाई रखने, ट्रेन की रफ्तार 30 किमी प्रति घंटा रखने, वनकर्मियों की नियमित गश्त रखने, ट्रैक पर हाथियों की मौजूदगी बताने वाले सेंसर लगाने समेत अन्य कई सुरक्षा इंतजाम की बात पूर्व में हुई। अभी तक इसके अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ पा रहे। ऐसे में हाथियों को रेलवे ट्रैक पार करते वक्त मौत को गले लगाना पड़ रहा है। मुख्य वन संरक्षक (गढ़वाल) जीएस पांडे के मुताबिक ट्रेन से कटकर हाथियों को जान न गंवानी पड़े, इसके लिए जल्द ही रेलवे के अधिकारियों के साथ बैठक कर ठोस रास्ता निकाला जाएगा। उन्होंने कहा कि ऐसे हादसे रोकने के लिए अब पूरी गंभीरता से कदम उठाए जाएंगे। साथ ही इनकी लगातार मॉनीटङ्क्षरग भी की जाएगी।
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