उपन्यासकार-डॉ अतुल शर्मा
हर प्रदेश की अपनी धरोहर होती है। अपनी संस्कृति होती है। अपनी धड़कने होती हैं। इन धड़कनों को जो चलाते हैं वे समाज के रक्त कण होते हैं। फिर, रक्त का रंग कुछ भी क्यों न हो। मतलब यह है कि प्रदेश की धड़कनों में एक नहीं अनेक व्यक्तित्व होते हैं। व्यक्ति अनगिनत होते हैं। व्यक्तित्व, गिने-चुने। ऐसा ही एक व्यक्तित्व है डॉ अतुल शर्मा। जो नदी की तरह बहते रहते हैं। नदी का अस्तित्व तो आप जानते ही हैं। वैसे भी नदी के उल्लेख के बिना डॉ अतुल शर्मा न तो पद्य लिखते और न गद्य। हम उनके एक गद्य जिसे आप उपन्यास कह सकते हैं, का उल्लेख कर रहे हैं यहाँ। जी हाँ, इस अभिनव उपन्यास का नाम है ‘दृश्य अदृश्य’। अर्थात्, जो दिख जाता है और जो देखा नहीं जा सकता। समय का कैमरा भी जिसे भेद नहीं पाता। बस, उस अदृश्य शैतान के वार पर वार अनुभव कर पाता है। अर्थात् मारने वाले का आकार-प्रकार तक पता नहीं लेकिन तबाही को साफ-साफ आँखों के कैमरे से देखा जा सकता है। वैसे भी कैमरे की आँखों के पार देखने के लिए आँखें चाहिए होती हैं। ये आँखें सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में डॉ अतुल शर्मा के पास ही है। हमारे-तुम्हारे पास नहीं है। और हाँ, यह कैमरा बिकाऊ नहीं होता है। यह कैमरा टिकाऊ होता है। साहित्य की दुनिया में डॉ अतुल शर्मा के टिकाऊपन से भला कौन परिचित नहीं।
चलिए, और खुलकर बात हो जाए। डॉ अतुल शर्मा समय की नाड़ी के पारखी हैं। इनके पिताश्री श्री राम शर्मा अग्रिम पंक्ति के कवि रहे है। सुपुत्र डॉ शर्मा भी इसी श्रेणी में आते हैं। कविता लेखन में इनकी पहलवानी जग ज़ाहिर है। ये जनाब अन्य विधाओं में भी हाथ आजमाते रहते हैं। इनकी गद्य और पद्य रचनाओं की सूची लम्बी है। लिहाजा, कोरोना कांड पर इनके उपन्यास की चर्चा हो जाए। दो मत नहीं कि जहाँ एक ओर यह उपन्यास हमें देहरादून के ही डॉ महेश कुड़ियाल और डॉ जी एस परमार की सुध दिलाता है वहीं यह उपन्यास यह भी बताता चलता है कि एक वरिष्ठ पत्रकार जितेन्द्र अंथवाल कोरोना को धोबी पाट लगाने में सफल रहे। यह उपन्यास आपको मैदानी नदी नहीं बल्कि एक पहाड़ी नदी की सैर कराता है। पहाड़ी नदी कहीं दृश्य तो कहीं अदृश्य हो जाती है। कहीं गहरी तो कहीं चौड़ी हो जाती है। कहीं आवेग में चलती है तो कहीं मंथर हो जाती है। कहीं तो ऐसे घुमाव होते है कि देखने वाला घबरा उठे। वह चक्कर खाकर गिर जाए।
इसमें आप कोरोना काल के वीराने में एक व्यक्ति को साईकिल से दवाईयों के वितरण का दायित्व निभाने को मजबूर देखते हैं। उसे कोरोना से बचते-बचाते कोरोना के चक्रव्यूह में फँसते हुए देखते हैं। उसे आप सड़कों पर चौकस पुलिस से बचते-बचाते गलियों से रास्ता तलाशते हुए भी देखते हैं। आप एक गरीब महिला को सड़क पर प्रसव पीड़ा से तड़पते हुए असहाय दम तोड़ते हुए भी पाते हैं। उसके साथ उसका अजन्मा बच्चा भी संसार में आने से पहले ही चल बसता है। ऐसी उफनती वेदना का आप एहसास कर सकते हैं। उफनती मौत की नदी की तरह। आप इसमें फैक्ट्री मजदूर सुरेश और अंजी को बेहताशा भूखे पेट सुनसान रेलवे पटरियों के बीच नन्हे बच्चे सहित देख सकते हैं। जिनके सामने मीलों-मील का अनंत और अज्ञात रास्ता है। वे तो केवल अपने नंगे पैर घसीटते हुए चल पड़ते हैं। कई दिन खुद के वजन को कंधों पर उठाए फूटे पैरों से चलते-चलते किसी न्यूज चैनल के पत्रकार से जा मिलते हैं। या यों कहें कि वह पत्रकार अपने कैमरा मैन के साथ इन निढ़ाल-निष्प्राण होते तीन जीवों से आ मिलते हैं। दयावान पत्रकार न केवल बिस्कुट वगैरह इन्हें भेंट कर देता है बल्कि सुरेश को अपने जूते निकालकर दे देता हैं। पत्रकार की संवेदनशीलता हमें उतना ही झकझोर कर रख देती है जितना कि सुरेश और अंजी की दुर्दशा।
भारत ने अनगिनत ऐसे ही सुरेशों और अंजियों को सड़कों पर मचलते, उफनते, उबलते, तड़पते और मरते देखा। हजारों-हजार किलोमीटर घर से दूर मजबूर होकर मजदूरी करने वाले मजदूरों पर कोरोना ने जो कहर बरपाया। यह उपन्यास उस दुर्दांत कहर की मुनादी कर रहा है। अर्थात् यह उपन्यास, उपन्यासकार की कैमरानुमा आँखों से हर उस पीड़ा का भागी बन रहा है जो कोरोना पीड़ितों को दबोचे हुए थी। ऐसा भागीदार बनना डॉ अतुल शर्मा जैसे संवेदनशील साहित्यकार के लिए ही संभव है। यह एक दस्तावेज भी है जो कोरोना के प्रचंड प्रहार से उजड़े तमाम परिवारो की गवाही दे रहा है। इस भयानकतम् विपदा ने अपनों को अपनों से अलग कर दिया। ऐसा क्रूर अलगाववाद जिसमें अपने अपनों की लाश को देख तक न सके। विधिवत अंतिम संस्कार तो छोड़िए। इस कृत्रिम-अकृत्रिम त्रासदी ने कई ऐसे शूरमा भी पैदा किए जिनके लिए कोरोना की शिकार लाश का विधिवत अंतिम संस्कार एक मिशन बन गया। भारत ने ऐसे कई मिशन मैन देखे। ये मिशन मैन इस उपन्यास में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दर्ज हैं। इस उपन्यास में तबाही की नदी का शायद ही ऐसा कोई मोड़ हो जिसे उपन्यासकार ने नजरअंदाज कर दिया।
उपन्यासकार को शायद यह अहसास भी है कि देश ही नहीं अपितु पूरा संसार कोरोना वायरस के हिटलरी यातना शिविर में नजरबंद है। यह भी कि इस नजरबंदी में आज की उन्नत सूचना तकनीकि और पीड़ित एवं पीड़ित के अपने सगे लोगों का आत्मविश्वास और आशा अचूक हथियार थे कोरोना युद्ध में। यह भी कि डॉक्टरों, पुलिसवालों और नर्सों ने इस युद्ध में कुर्बानियाँ दी और संघर्ष का एक नया इतिहास रच डाला। उपन्यासकार, विक्टर फ्रैंक को याद कर रहा है जिसने हिटलर के यातना कैंप में विश्वास का दामन मजबूती से पकड़े रखा और अनुभव की जा रही त्रासदी को किताब में पिरोने का संकल्प लिया था। यही संकल्प फ्रैंक की ताकत बन गया था। लहर एक, लहर दो और कोरोना वायरस को परास्त करने के लिए देश और विदेश में चल रहे प्रयास यानी कोरोना के टीका के जन्म के आशावाद से होता हुआ यह उपन्यास स्पेनिश फ्लू तक जा पहुँचता है। उपन्यास की जद में यह भी आ जाता है कि महात्मा गाँधी और प्रेमचंद ने इस फ्लू को दे पटका था जबकि महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी की पुत्रवधू और उनके पोते को यह फ्लू लील गया था। यही है जीवन की नदी जो उपन्यासकार की आँखों के कैमरे में सजीव होकर बह रही है और बहती रहेगी।