
हिन्दू पुरोहितों को नदियों की रक्षा के लिए आगे आना होगा
पिछले कुछ दिनों से भारतीयो 
देखी तुमने क्या निर्मल गंगा 
पिछले कुछ दिनों से हिन्दुओ
देखी तुमने क्या स्वच्छ यमुना 
सर-सर, सर-सर सरसराती 
कल-कल कल-कल किलकिलाती 
छल-छल छल-छल छलछलाती 
हवा की थपकियों की थप-थप में 
हिलमिल हिलमिल हिलमिलाती 
स्वतंत्रता के गीत मधुर गुनगुनाती। 
हमारे घरों के मैल से 
उद्योगों के बहते ज़हर से 
अन्ध-विश्वासों के प्रदूषण कहर से 
क्या माँ-नदियों को स्वतंत्र न रहने दोगे 
इन्हें इनके प्राकृतिक स्वरूप में न बहने दोगे 
क्या कोरोना-काल से पहले वाली घुटन से इन्हेें भर दोगे 
राक्षस-कोरोना से क्या कोई सबक न लोगे 
इस मानव-भक्षी से बचकर क्या यही कहोगे 
हम मानव हैं हमको अपना अहंकार है प्यारा 
हमने सदा अपने स्वार्थों के लिए नदियों को है मारा 
हमको अधमरी नदियाँ ही अच्छी लगती हैं 
हमें गुनगुनाती नदियों को गूँगा कर देना है आता 
हमें नदियों के यौवन की जगह इनका बुढ़ापा है भाता 
विकास के गीत गाते-गाते 
हमें नदियों को गंदे नाले बना देना है आता 
हमें विकास की वेदी पर नदियों को न्योछावर करना खूब सुहाता 
हम मानव हैं 
हम धरती को भोगने के लिए जन्मे हैं 
नदियों को माँ कह देने में भला हमारा क्या बिगड़ जाता है 
नदियाँ तो हमारी दासियाँ हैं इस सच का हमें बखूबी अन्दाजा है। 
ऐ हिन्दू अपना सुनहरा अतीत याद कर 
जब प्रकृति को तू अपने शरीर का हिस्सा कहता था
वेदों-उपनिषदों में प्रकृति को ही जीवन कहता था
सुबह-शाम प्रकृति को पूजना तू पूजा कहता था 
प्रकृति की शान्ति में अपनी शान्ति पाता था
धरती में तुझको माता और आकाश में पिता दिखता था 
छोड़ दे नदियों के किनारे मानव के शव जलाना 
छोड़ दे नदियों मे अस्थि-कलश बहाना 
इन अन्ध-विश्वासों ने हिन्दू को नैतिकता से गिराया 
कर्मकांडों के बोझों ने हमारा पतन कराया 
इन्हीं कमियों के रहते हमने दासता का लम्बा अन्धा युग पाया 
शौर्य छूटा हमसे और हमने असली हिन्दुत्व गँवाया 
पर्यावरण ही हिन्दुत्व का सार है क्यों हमें अभी तक याद न आया। 
बिजली से शव को जलाओ 
राख को पानी में न बहाओ 
धरती माता की कोख से जन्म हमारा होता 
जलकर धरती माता में मिल जाना धर्म है असली होता 
ऐ हिन्दू तू कब तक रहेगा सोता 
जिन नदियों में लगाता है तू गोता 
वे अमृत के बहते प्याले हैं 
तेरे कुकर्मों से इन नदियों को पड़ गए जीने के लाले हैं 
नदियों के भीतर गंदगी से छटपटा रहे असंख्य जल-जीव निराले हैं। 
           -सावित्री पुत्र वीर झुग्गीवाला, स्वतंत्र पत्रकार, देहरादून।
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