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उत्तराखण्ड की आत्मा में पांडव

पाण्डवों की वीरता पर झूम उठता है गढ़वाल
द्वापर युग की यादों में खो जाता है गढ़वाल।

नेशनल वार्ता ब्यूरो
द्वापर युग के महानायक पांडव उत्तराखण्ड की आत्मा में रचे-बसे हैं। गढ़वाल में तो पग-पग पर पांडव पूजे जाते हैं। पांडवों का इस प्रदेश से गहरा नाता रहा है। उत्तराखण्ड की खूबसूरत घाटियों और पर्वत चोटियों पर पांडवों के पराक्रम की गूँज आज भी सुनी जा सकती है। जब पांडव अज्ञातवास और वनवास में थे तब भी उनका यहाँ आना-जाना रहा है। जब लगभग पचास साल उत्तर भारत पर पांडवों ने राज किया था। तब सनातन भारतीय परम्पराओं की मर्यादा के अनुसार उन्होंने राज-पाठ परीक्षित के हवाले कर दिया और हिमालय की ओर आए। इसी क्रम में वे गढ़वाल के कई हिस्सों में प्रवास के दौरान रूके और स्थानीय लोगों के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आए। ऐसा माना जाता रहा है कि लोग पांडवों को साक्षात अपने समक्ष पाकर स्वयं को धन्य-धन्य मान रहे थे। क्योंकि कृष्ण भक्त, राम भक्त और शिव भक्त पांडव उनके लिए साक्षात् भगवान का ही स्वरूप थे। जैसे-जैसे पांडव हिमालय की ऊँची चोटियों की ओर बढ़ते गए, वे अपने अस्त्र-शस्त्र लोगों के हवाले करते गए। तभी गढ़वाल के लोगों ने यह ठान लिया था कि वे पांडवों की स्मृति को भारत के लोकतत्व से कभी भी ओझल नहीं होने देंगे। यहीं से पांडव नृत्य की शुरूआत हुई। जो निरन्तर जारी है और जारी रहेगी।
पांडव नृत्य गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर का अटूट हिस्सा है। इस नृत्य का आयोजन पूरे एक माह तक चलता है। इस नृत्य के माध्यम से वीरोचित अंदाज में गाँव की खुशहाली, गाँव की सोच और फसलों की सुरक्षा की भावना भी प्रकट की जाती है। यहाँ के गाँवों में यह मान्यता है कि इस नृत्य के माध्यम से पालतू पशुओं को भी निरोग रखा जा सकता है। जिस स्थान पर पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है उसे पांडव चौक के नाम सम्मानित किया जाता है। आयोजन से पहले कई गाँवों के लोग बैठक में शामिल होकर पांडव नृत्य के लिए तैयारियों पर चर्चा करते हैं और सुनियोजित ढंग से पांडव नृत्य का संचालन माह भर तक करते हैं। इस धार्मिक-सामाजिक उत्सव के दौरान गाँवों की बेटियाँ अपने दूर-दराज स्थित ससुरालों से मायके आ जाती हैं जहाँ पांडव नृत्य का आयोजन हो रहा हो। ऐसे में पांडव चौक के आस-पास के गाँवों में बहार आ जाती है। ऐसा माना जाता है कि नृत्य में भाग ले रहे संस्कृतिकर्मियों में साक्षात् युधिष्ठर, भीम, अर्जुन और नकुल, सहदेव की आत्मा अवतरित हो जाती है। ढोल और दमाउ की ढम-ढम और थप-थपाड़ पर उपस्थित दर्शक झूम उठते हैं। पांडव काल सजीव होकर सामने उपस्थित हो जाता है। इस तरह पांडव और द्रौपदी की महिमा में गढ़वाल रीझा हुआ रहा है। हर वर्ष नवम्बर-दिसम्बर में पांडव नृत्य की धूम के रहते पहाड़ों का वातावरण चहक उठता है।

(सावित्री पुत्र वीर झुग्गीवाला (वीरेन्द्र देव), पत्रकार,देहरादून)


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