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देहरादून की यादों में बसते हैं अभिनेता के.एन. सिंह

राज परिवार में जन्में के0एन0 सिंह भाला फेकने (javelin throw) में लाजवाब थे
अभिनय में के0एन0 सिंह को महारथ हासिल था
के0एन0 सिंह बहुत अनुशासित अभिनेता थे
के0 एन0 सिंह ने देहरादून का नाम बुलन्दियों पर पहुँचाया

(1 september 1908-31 january 2000)

-नेशनल वार्ता ब्यूरो-
भले ही अभिनेता के0एन0 सिंह 31 जनवरी 2000 के दिन हमसे हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ गये किन्तु उनकी यादें देहरादून के सिनेमा प्रेमियों के मन में अभी तक ताजा हैं। राजघराने से सम्बन्ध रखने वाले के0एन0 सिंह का पुश्तैनी भवन करीब 15 साल पहले तक एम0के0पी0 महाविद्यालय के पास के0एन0 सिंह के अस्तित्व का आभास कराता था लेकिन अब वह भवन वहाँ से नदारद है। वक्त के प्रवाह में आदमी के साथ-साथ स्थायी धरोहर की शक्ल-सूरत भी बदल कर रह जाती है। इनके पिता चण्डी प्रसाद सिंह चर्चित वकील (criminal lawyer) थे । जबकि के0एन0 सिंह सुप्रसिद्ध खिलाड़ी थे। देहरादून में जन्मे के0एन0 सिंह भाला फेकने में लाजवाब थे। उनका चयन 1936 में बर्लिन ओलम्पिक (berlin olympic) के लिए हुआ था। लेकिन उनके भाग्य को यह मंजूर नहीं था। उन्हें मजबूरन अपनी बीमार बहन के पास कलकत्ता (kolkata) जाना पड़ा था। लिहाजा, उन्हें ओलम्पिक से मुँह मोड़ना पड़ा। उनके पिता चाहते थे कि के0एन0 सिंह उन्हीं की तरह वकालत के पेशे में आएं। लेकिन उनके पिता के शानदार बचाव (defence) के बूते एक अपराधी फाँसी के तख्ते से बच निकला। इस बात की जानकारी जब के0एन0 सिंह तक पहुँची तो उन्होंने वकील बनने का इरादा हमेशा के लिए त्याग दिया। जब के0 एन0 सिंह अपनी बीमार बहन के पास कलकत्ता प्रवास पर थे तब उनकी मुलाकात उनके पारिवारिक मित्र पृथ्वीराज कपूर से हुई। पृथ्वीराज कपूर ने सजीले नौजवान के0एन0 सिंह की मुलाकात फिल्म डायरेक्टर देबकी बोस से करायी। जिन्होंने के0एन0 सिंह के आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ‘सुनहरा संसार’ फिल्म में उन्हें अवसर दिया। यह सन् 1936 की बात है। इस फिल्म से उन्हें मामूली सफलता मिली किन्तु 1938 में बाघबन फिल्म से वे चर्चा में आए। इस फिल्म में के0एन0 सिंह ने खलनायक की भूमिका निभाई थी। इसके बाद के0एन0 सिंह की माँग ने जोर पकड़ा और वे खलनायक की भूमिका के लिए पसंदीदा कलाकार के रूप में सफलता के शिखर पर जा बैठे। के0एन0 सिंह की आवाज और संवाद अदायगी का मिलाजुला असर कमाल का होता था। वे कम से कम ऊर्जा लगाकर बेहतरीन अभिनय करते थे और उनके अभिनय में नाटकीयता की झलक नहीं रहती थी। वे खलनायक की भूमिका में भी एक सज्जन पुरूष की तरह दिखते थे और जब उनके मुँह में सिगार होता था तो दर्शक अपनी सीटों पर बैठे-बैठे उत्सुक होकर आगे की ओर झुक जाते थे। इसका मतलब है कि सिगार के साथ उनका अभिनय चरम पर पहुँच जाता था। के0एन0 सिंह अपने रोल के लिए पूरी तैयारी करते थे। 1956 में ‘इंसपेक्टर’ फिल्म में अपने किरदार के लिए उन्होंने विशेष तरीके से जुटकर तैयारी की थी ताकि उनके अभिनय में किसी भी एक्सन में किसी तरह की ढिलाई न रह जाए। 1970 में ‘झूठा कहीं का’, 1971 में ‘हाथी मेरे साथी’ और 1973 में फिल्म ‘लोफर’ में उनके शानदार अभिनय को आज भी सराहा जाता है। 1975 के बाद उन्होंने अभिनय से किनारा कर लिया था। फिर भी 1986 में उन्हें ‘वो दिन आएगा’ फिल्म में अंतिम बार देखा गया था। उनकी फिल्मों की कतार लम्बी है किन्तु सबसे अहम् बात यह है कि वे समय के पाबंद थे और शायद ही वे कभी फिल्म के सैट पर समय पर  न पहुँच पाए हों। अभिनय के साथ-साथ व्यक्तित्व के हिसाब से उनका कद बहुत बड़ा था। फिल्मों के विकास में उनके योगदान को सदैव याद किया जाएगा। उन्होंने निर्देशन और निर्माण में भी अपनी भूमिका निभायी थी। लगभग 100 फिल्मों में सिंह साहब ने अपने अभिनय के जौहर दिखाये। नेशनल वार्ता न्यूज देहरादून ही नहीं बल्कि पूरे देश के सिने प्रेमियों की ओर से कृष्ण निरंजन सिंह जी को अपनी करबद्ध श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

-सावित्री पुत्र वीर झुग्गीवाला (वीरेन्द्र देव), पत्रकार, देहरादून।


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